महाकवि-अश्वघोषः-बुद्धचरित

                                            महाकवि-अश्वघोषः

महाकवि-अश्वघोषस्य समयः -प्रथम शताब्दी -
संस्कृते ये कतिपये महाकवयस्तेषामन्यतमः किलः अश्वघोषो गण्यते । स हि खण्डकाव्य-महाकाव्य-रूपकेतिविविधकाव्यकर्ताऽऽसीत् । समुद्रगुप्तप्रणीते कृष्णचरिते राजकविवर्णनप्रसड्गे अश्वघोषस्य चर्चा विद्यते । अश्वघोषेणाऽपि स्वस्थितिकालादिविष्ये मौनमेवावलम्बितम् । कनिष्कसमकालिकतयाऽश्वघोषस्य समयः प्रथम ई.पू. स्थिरः । डॉ. चाउ सियांग महोदयः चीनी बौद्धधर्मस्य इतिहासे अश्वघोषस्य समयः प्रथमः खिष्टाब्दः मन्यते । अश्वघोषस्य काव्यं चीनीभाषायाम् 384-417 ई. समयेऽनूदितम् । इत्सिड्गो नाम चीनवासो यात्री अश्वघोषं महोपदेशकः नागार्जुनात् पूर्ववर्त्तिनञ्चाह । सारनाथस्थिते कनिष्कशिलालेखे अश्वघोषराज इति नामनिदेशोऽपि मिलति । तेन हि अस्य स्थितिकालो विक्रमानन्तरतृतीयशतकमभित इत्यनुमितः । 1893 ख्रिष्टाब्दात् पूर्वमयं दार्शनिकरूपेणैव प्रसिद्ध आसीत् । एभिः प्रमाणैः सिद्धयति यत् कविरयं कनिष्कसमये जीवित आसीत् । अतः अश्वघोषस्य समयः प्रथमः खिष्टाबदः इति मन्यते । 

महाकवि- अश्वघोषस्य देशः-जीवनवृत्तम् -
अश्वघोषः साकेतवासीति प्रसिद्धम् । अश्वघोषस्य मातुर्नाम च सुवर्णाक्षी । जन्मना ब्राह्मणः । कालक्रमेण च बौद्धो बभूव । पार्श्वस्य शिष्यश्च  कथ्यते । स हि मगधराजाक्षित आसीत् । उत्तारभारतशासकः कनिष्को मगधाधीशम् आक्रमणेन नमयित्वा राज्यस्य परिवर्त्ते वस्तुद्वयं दातुमिष्टवान् - 1 बुद्धस्य पात्रम् 2. अश्वघोषञ्च । राजा मगधानां पात्रं दातुमुद्यतोऽपि कविमश्वघोषं दातु नैच्छत् । अश्वघोषः इतिहाससंगीतस्य महाराजकनिश्कस्य गुरु आसीदिति अनुसन्धातृणां मतम् । अश्वघोषस्य काव्यानि संस्कृतसाहित्यस्य सुन्दतमेषु काव्येषु गण्यन्ते । अश्वघोषस्य प्रतिभा चतुर्मुखी आसीत् । स तु प्रचारवादिषु कविषु अग्रिमः ।

महाकवि-अश्वघोषस्य रचना-
अस्य महाकवेः महाकाव्य द्वयं प्रकरणमेकं च विवादरहितम् । तच्च -
1. बुद्धचरितम् - बुद्धचरितं संस्कृतभाषामयं (17) सप्तदशसर्ग निबद्धमेकं महाकाव्यं विद्यते । अत्र बुद्धस्य चरितमुपदेशाँक्ष्च कविः अवर्णयत् । बुद्धचरितस्य 404 खिस्ताब्दे चीनीभाषायां अनुवादो बभूव । 1800 खिस्ताब्दे च तिब्बतीभाषायामनुवादो बभूव । बुद्धचरितस्य भाषा शैली च मनोहारिणी वर्तते । प्राकृतिकवर्णनं सजीवम् । मञ्जुलोऽलड्कारसन्निवेशः । 
2.  सौन्दरानन्दः - अष्टदश (18) सर्गात्मकेऽत्र महाकाव्ये इक्ष्वाकुवंश्यस्य राज्ञो नन्दस्य धर्मपरिवर्त्तनम् सुन्दर्या सह तत्पाणिग्रहणं च वर्णयति कविः । द्वितीयं महाकाव्यं म.म. हरप्रसादशास्त्रिणा कलिकातातः प्रकाशितम् । गौतमस्य लघुभ्रातुः सुन्दानन्दस्य चरित्रं वर्णितमत्र सरलभाषायां वैदर्भीशैल्यामुपमारूपकबहुलायाम् । 
3. शारिपुत्रप्रकरणम् - अस्य शारिपुत्रप्रकरणस्य प्रकाशनं एच. लूडर्सममहोदयेन बर्लिनस्थानात् बभूव । गद्यं पद्यं प्रकृतप्रयोगं भरतवाक्यादिकं च अत्र मिलति । 

महाकवि-अश्वघोषस्य काव्यशैली-
कणदक्षोऽयं महाकविः । नन्दस्य भिक्षुरूपग्रहणे, सुन्दर्याः विलापे, नन्दानुतापे, यशोधसविलापे, मायारोदने, शुद्धोदनक्रन्दने च करुणस्यैव मन्दाकिनी प्रवहति । उपमारूपकादीनां प्रयोगेऽश्वघोषो निपुणः । अश्वघोषेण शब्दानां विशिष्टेऽर्थे प्रयोगः कृतो योऽन्यत्र नासाद्यते, यथा ‘गन्त्री’ शब्दो यानार्थे ‘धर्मन्’ शब्दश्च व्यवहारार्थे । अश्वघोषः वैदिकपौराणिकविषयाणां महान् भण्डागार आसीत् । यदि कालिदासस्य रचनासु चातुर्वर्ण्यस्य व्यापिका पृष्ठभूमिर्दृश्यते तदाश्वघोषस्य रचनासु बौद्धधर्मस्य विश्वजनीणगम्भीरनैतिकता विलोक्यते ।


                                                महाकवि-अश्वघोषः-बुद्धचरित 
(हिन्दी)
संस्कृत में बौद्ध महाकाव्यों की रचना का सूत्रपात सर्वप्रथम महाकवि अश्वघोष ने ही किया था। अत: महाकवि अश्वघोष संस्कृत के प्रथम बौद्धकवि हैं। चीनी अनुश्रुतियों तथा साहित्यिक परम्परा के अनुसार महाकवि अश्वघोष सम्राट कनिष्क के राजगुरु एवम् राजकवि थे। इतिहास में कम से कम दो कनिष्कों का उल्लेख मिलता है। द्वितीय कनिष्क प्रथम कनिष्क का पौत्र था। दो कनिष्कों के कारण अश्वघोष के समय असंदिग्ध रूप से निर्णीत नहीं था।
विण्टरनित्स के अनुसार कनिष्क 125 ई. में सिंहासन पर आसीन हुआ था। तदनुसार अश्वघोष का स्थितिकाल भी द्वितीय शती ई. माना जा सकता है। परन्तु अधिकांश विद्वानों की मान्यता है कि कनिष्क शक संवत का प्रवर्तक है। यह संवत्सर 78 ई. से प्रारम्भ हुआ था। इसी आधार पर कीथ अश्वघोष का समय 100 ई. के लगभग मानते हैं। कनिष्क का राज्यकाल 78 ई. से 125 ई. तक मान लेने पर महाकवि अश्वघोष का स्थितिकाल भी प्रथम शताब्दी माना जा सकता है।
बौद्ध धर्म के ग्रन्थों में भी ऐसे अनेक प्रमाण मिलते हैं, जिनके आधार पर अश्वघोष, सम्राट कनिष्क के समकालीन सिद्ध होते हैं। चीनी परम्परा के अनुसार सम्राट कनिष्क के द्वारा काश्मीर के कुण्डलव में आयोजित अनेक अन्त:साक्ष्य भी अश्वघोष को कनिष्क का समकालीन सिद्ध करते हैं।
अश्वघोष कृत 'बुद्धचरित' का चीनी अनुवाद ईसा की पांचवीं शताब्दी का उपलब्ध होता है। इससे विदित होता है कि भारत में पर्याप्त रूपेण प्रचारित होने के बाद ही इसका चीनी अनुवाद हुआ होगा।
सम्राट अशोक का राज्यकाल ई.पू. 269 से 232 ई. पू. है, यह तथ्य पूर्णत: इतिहास-सिद्ध है। 'बुद्धचरित' के अन्त में अशोक का उल्लेख होने के कारण यह निश्चित होता है कि अश्वघोष अशोक के परवर्ती थे।
चीनी परम्परा अश्वघोष को कनिष्क का दीक्षा-गुरु मानने के पक्ष में है। अश्वघोष कृत 'अभिधर्मपिटक' की विभाषा नाम्नी एक व्याख्या भी प्राप्त होती है जो कनिष्क के ही समय में रची गयी थी।
अश्वघोष रचित 'शारिपुत्रप्रकरण' के आधार पर प्रो0 ल्यूडर्स ने इसका रचनाकाल हुविष्क का शासनकाल स्वीकार किया है। हुविष्क के राज्यकाल में अश्वघोष की विद्यमानता ऐतिहासिक दृष्टि से अप्रमाणिक है। इनका राज्यारोहणकाल कनिष्क की मृत्यु के बीस वर्ष के बाद है। हुविष्क के प्राप्त सिक्कों पर कहीं भी बुद्ध का नाम नहीं मिलता, किन्तु कनिष्क के सिक्कों पर बुद्ध का नाम अंकित है। कनिष्क बौद्धधर्मावलम्बी थे और हुविष्क ब्राह्मण धर्म का अनुयायी था। अत: अश्वघोष का उनके दरबार में विद्यमान होना सिद्ध नहीं होता।
कालिदास तथा अश्वघोष की रचनाओं का तुलनात्मक अध्ययन करने के पश्चात् यह निष्कर्ष निकलता है कि अश्वघोष कालिदास के परवर्ती थे। कालिदास की तिथि प्रथम शताब्दी ई. पू. स्वीकार करने से यह मानना पड़ता है कि दोनों रचनाओं में जो साम्य परिलक्षित होता है उससे कालिदास का ऋण अश्वघोष पर सिद्ध होता है। अश्वघोष के ऊपर कालिदास का प्रभूत प्रभाव पड़ा था, इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि कालिदास ने कुमारसंभव और रघुवंश में जिन श्लोंकों को लिखा, उन्हीं का अनुकरण अश्वघोष ने बुद्धचरित में किया है। कालिदास ने विवाह के बाद प्रत्यागत शिव-पार्वती को देखने के लिए उत्सुक कैलास की ललनाओं का तथा स्वयम्वर के अनन्तर अज और इन्दुमतीको देखने के लिए उत्सुक विदर्भ की रमणियों का क्रमश: कुमारसंभव तथा रघुवंश में जिन श्लोकों द्वारा वर्णन किया है, उन्हीं के भावों के माध्यम से अश्वघोष ने भी राजकुमार सिद्धार्थ को देखने के लिए उत्सुक कपिलवस्तु की सुन्दरियों का वर्णन किया है। बुद्धचरित का निम्नश्लोक-
वातायनेभ्यस्तु विनि:सृतानि परस्परायासितकुण्डलानि।
स्त्रीणां विरेजुर्मुखपङकजानि सक्तानि हर्म्येष्विव पङकजानि॥[1]
कुमारसंभव तथा रघुवंश के निम्नश्लोक-
तासां मुखैरासवगन्धगर्भैर्व्याप्तान्तरा सान्द्रकुतूहलानाम्।
विलोलनेत्रभ्रमरैर्गवाक्षा: सहस्रपत्राभरणा इवासन्।[2] 
उपर्युक्त श्लोकद्वय के तुलनात्मक अध्ययन से यह सिद्ध होता है कि अश्वघोष कालिदास के ऋणी थे, क्योंकि जो मूल कवि होता है वह अपने सुन्दर भाव को अनेकत्र व्यक्त करता है। उस भाव का प्रचार-प्रसार चाहता है इसीलिए कालिदास ने कुमारसंभव और रधुवंश में अपने भाव को दुहराया है। परन्तु अश्वघोष ने कालिदास का अनुकरण किया है। अत: उन्होंने एक ही बार इस भाव को लिया है। फलत: अश्वघोष कालिदास से परवर्ती हैं।  

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